"...तुम्हारे
सामने एक भयानक दलदल है- उससे सावधान रहना। सब कोई उस दलदल में फँसकर
खत्म हो जाते हैं। वर्तमान हिन्दुओं
का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में- धर्म तो
भोजन पात्र में समा चुका है- यही वह दलदल है। वर्तमान
हिन्दू धर्म न तो विचारप्रधान ही है और न ज्ञानप्रधान; मुझे न छूना, मुझे न छूना-
इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलम्बन है, बस इतना ही। इस घोर वामाचाररुप
अस्पृश्यता में फँसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना। आत्मवत सर्वभूतेषु
क्या यह वाक्य केवलमात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिए है? जो लोग गरीबों को रोटी
का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं? दूसरों के
श्वास-प्रश्वासों से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना
सकते हैं? अस्पृश्यता एक प्रकार की मानसिक व्याधि है, उससे सावधान रहना।..."
(स्वामी
विवेकानन्द द्वारा गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखे पत्र से)
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